जब मात्र 300 हिन्दू शूरवीरों ने 10000 की मुगल सेना को रोक दिया था
“लाख मेले तरी चालतील
पण लाखांचा पोशिंदा
जगला पाहिजे “
श्री बाजी प्रभू देशपांडे
उल्लेखनीय है कि थोड़े बहुत हिन्दू या भारतीय ही होंगे जिन्होंने अपने विद्यालय में इतिहास की पुस्तक में वीर बाजी प्रभु देशपांडे के बारे में अध्ययन किया हो । बता दें कि बाजी प्रभु उन असंख्य गुमनाम शूरवीरो में से एक हैं जिनके शौर्य ने भारतवर्ष को एक सशक्त स्वतन्त्र स्तर प्रदान करने के साथ ही स्वयं शौर्य की ही परिभाषा बदल कर रख दी थी, मगर हमारे ढीले ढाले प्रशासनिक तंत्र व् सुपारी इतिहासकारों के षड्यंत्र के चलते गुमनामी के अँधेरे में खो गये ।
आज के युग में यदि हम बाजी प्रभु देशपांडे के शौर्य का आंकलन करना चाहें तो किसी युद्ध लड़ रही सेना के सामरिक योजनाकार की ही तरह कर सकते हैं । केवल इस सन्दर्भ में आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति और प्रौद्योगिकी ज़रा भी मौजूद न होकर, एक विवेकशील, चतुर और अनुशासित मस्तिष्क तत्पर था । इसी मनोबल के चलते उन्होंने छत्रपति शिवजी की सेना को पावन खिंड के युद्ध में एक शानदार विजय प्राप्त कराई ।
जिस तरह आधुनिक युग में देश के प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार निरन्तर सामरिक विषयो पर रणनीति तैयार करते रहते हैं, ठीक उसी तरह सैन्य विषयों पर दिमाग दौड़ाना बाजी प्रभु के लिए एक आम कार्य था ।
यद्यपि वीर छत्रपति शिवाजी के नाम से तो हम सभी अवगत होंगे, लेकिन बाजी प्रभु एक ऐसा नाम है जिनके जीवन विवरण में और गहराई से विश्लेषण करने पर ही हम उनके व्यक्तित्व के सबसे विस्थापित पहलुओं को पहचान पाते हैं । बाजी प्रभु का जन्म चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभु वंश के एक परिवार में वर्त्तमान पुणे क्षेत्र के भोर तालुक में मावळ प्रांत में हुआ था । बाल्यकाल से ही उनके ह्रदय में भारतववर्ष से बाहरी मुग़ल हमलावरों को नेस्तनाबूत कर बाहर का रास्ता दिखा देने का जज़्बा था । और शिवाजी की सेना में एक अभिन्न हिस्सा बनकर कार्य करना उनके इसी स्वप्न को वास्तविकता में बदलने वाला था ।
यही नहीं, स्वयं शिवाजी ने भी बाजी प्रभु के अभूतपूर्व उत्साह और सामरिक सूज बूझ को देखते हुए उन्हें अपनी सेना के दक्षिणी कमान को सौंपा जो कि आधुनिक कोल्हापुर के इर्द गिर्द उपस्थित था । बाजी प्रभु ने आदिलशाही नमक राजा के सेनापति अफज़ल खान को शिकस्त देने में एक अत्यंत ही अहम भूमिका अदा करी थी । हुआ कुछ यूँ की छत्रपति शिवाजी अफज़ल खान से अपने होने वाले द्वंद्व युद्ध के अभ्यास के लिए एक अति बलवान और अफज़ल जितने ही लम्बे चौड़े प्रतिद्वंदी को ढून्ढ रहे थे और यहीं पर बाजी प्रभु अपने साथ, सूरमा मराठा योद्धाओ की एक खेप लेकर आये, जिनमें विसजी मुरामबाक भी था जो अपनी कद काठी में अफज़ल खान जितना ही विशालकाय था ।
बस फिर क्या था, शिवाजी और बाजी प्रभु के नेतृत्व में मराठा सेनाओ ने अपनी कूटनीतिक और सामरिक चातुर्य से अफज़ल खान को मृत्यु और इस प्रबल जोड़ी ने आदिल शाह की अति विशाल सेनाओ तक के नाक में दम कर दिया । वस्तुतः, मराठा सेनाएं अपनी छापामार और घात लगाकर वार करने की क्षमता के कारण युद्धभूमि में इस्लामी हमलावरों के खिलाफ बेहद ही सफल रहे। साथ ही, आदिल शाह जैसे ही अनेको मुग़ल और मुसलमान शासको पर समूल विध्वंस कर देने वाले आक्रमणों के द्वारा मराठा सेनाओ ने अपने वर्षो से ज्वलंत स्वप्न को पूर्ण किया और इन शासको द्वारा भारतवर्ष के मूल निवासी हिन्दू जनसँख्या पर किये गए अत्याचारों का भरपूर उत्तर दिया ।
इन दिनों शिवाजी ने अपनी सेना को पन्हाला किले के इर्द गिर्द इकठ्ठा कर लिया था । आदिल शाह को किसी तरह खबर मिल गई, उसने तुरंत अपनी एक विशाल सेना के द्वारा पन्हाला किले के समीप एक तीव्र हमला बोल दिया । हमला इतना भीषण था की मराठा सेनाओ को भारी नुकसानों का सामना करना पड़ा । वहां से निकालकर बचना शिवाजी के लिए अति महत्वपूर्ण हो गया था |
युद्ध कई माह तक चलता रहा । आदिल शाह का प्रबल सेनापति सिद्दी जोहर अपनी जेहादी सेनाओ के द्वारा खूब कहर बरपा रहा था । और उससे काफी सफलता भी हासिल हुई जब उसने मराठा सेनाओ की रसद और संपत्ति को नष्ट कर दिया ।
हमले को नाकाम करने के सभी उपाय विफल हुए जा रहे थे । शिवाजी के कुशल सेनापति नेताजी पालकर ने भी हरसंभव प्रयास किया । अंततः शिवाजी ने एक अति गोपनीय विकल्प चुना । उन्होंने अपने एक वकील को सिद्दी जोहर के पास इस करार को लेकर भेजा की हम एक ससमझौता करने के लिए तैयार हैं । यह सुनते ही आदिल शाह की सेनाओं ने कुछ हल्का रुख इख्तियार करा और महीनो से चल रहे संग्राम में एक अल्प विराम तो लग ही गया । दरअसल यह शिवाजी की पन्हाला किले से अपनी सेनाओ को सुरक्षित बचा लाने की रणनीति का हिस्सा थ। आदिल शाह की 10000 सैनिको की जेहादी सेना से बचना एक जटिल कार्य था ।
इसी योजना के अंतर्गत गुरु पूर्णिमा या अषाड़ व्याध पूर्णिमा की एक रात्रि को 600 बेहद ही चुनिंदा और सक्षम योद्धाओ की टोली को लेकर शिवाजी और बाजी प्रभु इस योजना को अंजाम देने के लिए निकल चले । वे दो गुटों में बंटे । एक छद्म गुट की अगुवाई शिवजी के हमशक्ल शिवा नवी कर रहे थे और दुसरे की खुद शिवाजी महाराज जिसमें बाजी भी थे ।
मुग़ल सेना ने शिवा नवी की सेना पर आक्रमण कर अपनी सारी क्षमता और ऊर्जा उस दिशा में ही लगा दी । आदिल शाह की जेहादी सेनाओं ने शिवा नवी को अगुवा कर लिया, और उनका शीर्ष मर्दन कर दिया । शिवा नवी के इस महान बलिदान के कारण शिवाजी महाराज और बाजी प्रभु द्वारा संचालित टोलियों को अपनी मुहीम के लिए और अधिक समय मिल गया ।
इस छद्मावरण का पता चलते ही मुग़ल सेनाएं छटपटा कर अपने बाल नोचने लगी और असली शिवाजी की तलाश में निकल पड़ी ।
परन्तु तब तक शिवाजी और उनकी सेनाएं पुरजोर लगाकर वहाँ से जितनी दूर हो सके निकल चुकी थी । मुग़लों की 4000 सैनिको की फ़ौज को चकमा देते हुए सेना के अश्वों का जब सारा बल समाप्त होने की कगार पर ही था, तभी वे घोड कीन्द् दर्रे के पार पहुँच गए जिससे बाद में शिवाजी ने पावन कीन्द् का नाम दिया ।
और यही वह ऐतिहासिक पल था जब बाजी प्रभु ने अपने ऊपर मुगलो को धुल चटाने की ज़िम्मेदारी ली । उन्होंने अपने साथ कुछ 300 मराठा सैनिको को लिया और शिवाजी महाराज से आगे बढ़ने के लिए कहा । इस प्रकार वे मुग़लों से लड़कर शिवाजी और उनकी बची हुई सेना को सकुशल विशालगढ़ किले तक पहुचने में मददगार रहे । शिवाजी यह सुनकर, बाजी प्रभु की वीरता से स्तब्ध रह गए और अनमने भाव से अपनी सेना के साथ विशालगढ़ की ओर चल दिए ।
और फिर घोड कीन्द् में मराठा सूरमाओं ने अपने जौहर का वह सैलाब बरपाया जिसका इतिहास ही साक्षी है । हर हर महादेव की प्रचंड हुंकारों के साथ ही मराठा सेना भूखे शेरो की तरह मुगलों पर टूट पड़ी । बाजी प्रभु की सेना की संख्या बहुत ही अल्प थी ; यूँ कहिये की मुग़ल सेना का सिर्फ एक सौवां हिस्सा । हर तरफ भीषण नरसंहार का मंज़र फ़ैल चूका था । जिहादी अपने आक्रमणों में बर्बरता का उपयोग करे जा रहे थे । पर बाजी प्रभु उस वीरता की परम गाथा का नाम है जो क्षत्रु की राह में एक भीमकाय चट्टान की तरह खड़े रहे । उन्होंने दोनों हाथों में एक तलवार ली और वे बस अपनी पूर्ण शक्ति से मुग़लों को मौत के घाट उतारते रहे ।
शीघ्र ही उनके तन पर चोटों और घावों की संख्या इतनी बढ़ गयी थी कि ऐसा लगने लगा मानो कभी भी उनके प्राण तन को त्याग सकते हैं, परन्तु अपने मनो मस्तिष्क की असीम गहराइयों में समाये उस विश्वास और शक्ति के चलते वे अपनी अंतिम सांस तक डंटे रहे और जिहादी मुगलों को छठी का दूध याद दिला दिया । उनका शरीर लहू से लथ पथ और तलवारो और भालो के घावों से छलनी हो गया था । पर वे डटे रहे । वे डटे रहे तब तक जब तक उन्होंने उन तीन तोपो के दागे जाने की ध्वनि नहीं सुन ली जो शिवाजी के विशालगढ़ किले सुरक्षित पहुँच जाने के चिन्ह के रूप में पूर्व निर्धारित किया गया था ।
उधर शिवाजी महाराज की सेना को भी विशालगढ़ में पहले से मौजूद एक और मुग़ल सरदार, सुर्वे की सेना का सामना करना पड़ा । उन से जूझते हुए लगभग सुबह ही हो चली थी और सूर्योदय तक आखिरकार शिवाजी ने उन तीन तोपों को दाग दिया जो बाजी प्रभु को एक इशारा थी । बाजी प्रभु यद्यपि तब तक जीवित तो थे परन्तु लगभग मरणासीन हो चुके थे । उनके सभी साथी सैनिक हर हर महादेव का उद्घोष करते हुए बाजी को उठा कर दर्रे के पार पहुँच गए ।
परन्तु तभी, एक वीर की भांति विजयी मुस्कान के साथ बाजी ने अपनी अंतिम सांस ली और परमात्मा में लीन हो गए । और इसी के साथ, भारतीय इतिहास के पन्नो पर वीर बाजी प्रभु देशपांडे का नाम एक कभी न मिट सकने वाली स्याही से अंकित हो गया । उनका स्वर्णिम बलिदान भारतीय स्वराज की ओर उठे सबसे पहले कदमों में से एक था । देशभक्ति ही नहीं, यह सम्पूर्ण मानव जाति के लिए परिस्थितियों के झुकने वाले जज़्बे का एक दिल दहला देने वाला प्रमाण था ।
समाचार सुनकर शिवाजी महाराज का ह्रदय भर आया । बाजी प्रभु को एक भाव भीनी श्रद्धांजलि देते हुए उन्होंने घोर कीन्द् दर्रे का नाम पावन कीन्द् रखा जो दर्शाता था कि बाजी प्रभु के लहू से वह पावन हो चुका था । भविष्य में शिवाजी ने बाजी के बच्चो की देख रेख तक करी ।
आज के युग में जब हम अपनी मातृभूमि में जन्मे असंख्य गुमनाम शेरो को भुला चुके हैं, वीर बाजी प्रभु देशपांडे के सर्वोपरि बलिदान की कल्पना से रूह काँप उठती है और उनके प्रति ह्रदय भाव उमड़ पड़ता है ।
आइये आप और हम इस मराठा वीरगाथा का स्मरण करते हुए जांबाजी का पर्याय बन चुके बाजी प्रभु को एक विचारमग्न और उनके जीवन से जुड़े शौर्य के हर अनमोल पहलु को अपने जीवन में उकेरित करने का तत्पर प्रयास करें ।
हर हर महादेव
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