जानें इस महान योद्धा के बारे में जिसके कारण आज हिन्दू धर्म जिंदा है
मौर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक ने एक बौद्ध सम्राट के रूप में लगभग 20 वर्ष तक शासन किया। आचार्य चाणक्य के स्वर्गवास के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य जैन बन गये, अंत में संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हुआ।
चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार हुआ जो आगे जाकर मखली गौशाल नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ, आजीविक सम्प्रदाय भी पूर्णतया वेद-विरोधी था।
अर्थात बिन्दुसार ने भी आजीवन आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार हेतु ही सारा जीवन लगाया। बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र अशोक गद्दी पर बैठा, जिसने वैदिक धर्म की बजाय बौद्ध सम्प्रदाय को बढाने का काम किया।
अहिंसा के पथ पर भी अशोक को वास्तविकता और आवश्यकता से कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा कर महिमामंडित किया गया।
उस दौरान शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया गया था। भारत की वैदिक भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी।
उससे भी आगे जब मौर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट बृहदरथ मगध की गद्दी पर बैठा, तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था।
जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।
सम्राट बृहदरथ के शासनकाल में ग्रीक शासक MENINDER जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद और मनिन्द्र कहा गया है, ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा।
बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया। सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बौद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए। (जैसे कि आजकल के मस्जिद-मदरसों में हो रहा है)
दूसरी तरफ़ सम्राट बृहदरथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था।
बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट बृहद्रथ ने मना कर दिया। (आजकल की सरकारें भी ऐसा नही होने देतीं)
किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत सेनापति पुष्यमित्र शुंग, सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया, और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु बृहदरथ को यह बात अच्छी नही लगी।
पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई। सम्राट बृहद्रथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।
सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली।
मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये।
सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ, पुन: ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ।
भय से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्धों को सताया, किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी, जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।
साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफल रहा। पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध तक फ़ैला हुआ था। दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और स्यालकोट पर भी उसका अधिकार था।
साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा चलती रही। पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह-शासक नियुक्त कर रखा था। और उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार जी सेना के संचालक भी थे। इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी।
पुष्यमित्र का शासनकाल पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। अपने विजय अभियानों से उसने मगध की सीमा का बहुत विस्तार किया।
विदर्भ को जीतकर और यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र शुंग मगध साम्राज्य के विलुप्त गौरव का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार ‘साकल’ (सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या में प्राप्त उसके शिलालेख से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मध्यदेश पर उसका शासन भली-भाँति स्थिर था। विदर्भ की विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गयी थी।
इस प्रकार पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्ष (185-149 ई. पू.) तक राज्य किया।
हर हर महादेव
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