पिछले हजारों वर्षों में धरती पर नहीं जन्मा ऐसा ‘महापुरुष
एक समय जब सनातन धर्म अपने पतन की ओर था और भारतवर्ष में विधर्मी बौद्धों का चहुँओर बोलबाला था ऐसे समय में जन्म लिया महान शंकर ने जो आगे चलकर आदि शंकराचार्य कहलाये। आदि शंकर ने बेहद कम उम्र में जो कार्य किया वो किसी सामान्य मनुष्य के लिए असंभव है। इसलिए माना जाता है आदि शंकर के रूप में सनातन धर्म की रक्षा के लिए खुद भगवान शंकर ने आदि शंकर के रूप में जन्म लिया।
आदि शंकर ने ना ही मात्र सनातन की रक्षा की बल्कि ऐसी व्यवस्था दी जिसके रहते भारतवर्ष और सनातन का पतन असंभव है। चारों दिशाओं में व देश के मुख्य स्थानों पर आदि शंकर ने कई पीठों व मठों की स्थापना की जो आज भी निरंतर धर्म कार्यों में संलग्न हैं। जो चार मुख्य पीठ स्थापित की गयीं उन्हें शंकराचार्य पीठ के नाम से जाना जाता है। शंकराचार्य पद्धति ही सनातन धर्म की सर्वोच्च ‘पीठ’ है।
आदि शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. पू. ५०९ को तथा मोक्ष ई. पू. सन् ४७७ को केरल के कलाडी नामक स्थान पर स्वीकार किया जाता है। उनके पिता शिव गुरु तैतिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया था।
आदि शंकराचार्य को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ महापुरुषों में से इसलिए गिना जाता है क्योंकि उन्होंने निःस्वार्थ रूप से धर्म और सत्य की रक्षा तो की ही और साथ ही साथ देश व दुनिया के लिए विकास का ऐसा मॉडल दिया जो कि वेदों पर आधारित और प्रकृति के करीब था। जिस तरह आज की भौतिकवादी व्यवस्था ने धरती का नाश किया उसका सिर्फ एक ही विकल्प है वेदों के दिखाए रास्ते का अनुसरण।
आदि शंकर ने भौतिकता की जगह आध्यात्मिकता को बढावा दिया। गांधी सहित दुनिया के कई महापुरुषों ने आदि शंकर की दिखाई राह का ही अनुसरण किया और दुनिया अो भौतिकतावाद से बचने की सलाह दी। सादा जीवन उच्च विचार का फार्मूला भी सनातन ग्रन्थों के पश्चात् आदि शंकर द्वारा ही जीवन में उतारा गयाा।
शंकर की रुचि आरम्भ से ही सन्यास की तरफ थी। अल्पायु मे ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पडे।। वेदान्त के गुरु गोविन्द पाद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया। मिथिला के प्रमुख विद्वान मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ मे हराया। परन्तुं मण्डन मिश्र की पत्नि भारती के द्रवारा पराजित हुए। दुबारा फिर रति विज्ञान मे पारंगत होकर भारती को पराजित किया।
उन्होने तत्कालीन भारत मे व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया।
उत्तर मे ज्योतिर्मठ, दक्षिण मे श्रन्गेरी, पूर्व मे गोवर्धन तथा पश्चिम मे शारदा मठ नाम से देश मे चार धामों की स्थापना की। ३४ साल की अल्पायु मे पवित्र केदारनाथ धाम मे शरीर त्याग दिया था । सारे देश मे शंकराचार्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है।
शंकर दिग्विजय, शंकर विजय विलास, शंकरजय जैसे कई ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उजागर होते हैं। आदि शंकर को सनातन धर्म में भगवान शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। जिसके प्रमाण के लिए उनके जीवन से जुड़े कुछ चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आदि शंकर भगवान शिव के अवतार थे।
शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर पंडित मन्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना – इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है।
चार धार्मिक मठों में दक्षिण के श्रंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व उड़ीसा जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग श्रंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर आदि शंकर ने मात्र ३४ वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त कर ली थी ।
हर हर महादेव
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